शिव के नृत्य को हर कोई जानता है और उसी को हम शिव तांडव के नाम से जानते है पर सबको यही लगता है कि शिव सिर्फ गुस्से में नृत्य करते है जबकि ऐसा नहीं है. आइये जानते है शिव तांडव के बारे में जिसका शायद आपको नहीं पता हैं।
आनंदतांडव: जब महादेव शिव देवाधिदेव सर्वदेवभुज् नारायण की प्रेरणा से उन्हीके प्रति समर्पण और प्रेम से हर्षोल्हासित हो कर नृत्य करने लगते है तब उस तांडव को आनंद तांडव कहाँ जाता है। अपनी दोनों भुजाओं से डमरू बजाकर, अपनी भुजाएँ, कटिप्रदेश, ग्रीवा और गुल्फ-संधियों को झुकाकर भक्ति में मुग्ध और आनंद में मग्न होकर भावविभोर मन से शिव नृत्य करने लगते है जिससे सम्पूर्ण ब्रह्मांड पर आनंद की वर्षा होनी लगती है।
प्रदोषतांडव: भगवान विष्णु के विश्व-संरक्षण और पोषण के कार्यमें बाधा लाने वाले राक्षसों को मारकर देवो में प्रधान शिव भगवान नारायण की सेवा करते है। त्रिपुरासुर नामक राक्षस को मारकर भगवान शिव ने यही प्रदोष तांडव किया था। भुजाओं में त्रिशूल, परशु, हस्तिदंत और खड़्ग धारण कर भयावह क्रोध और उग्र गर्जनाओं से युक्त होकर, चतुर्भुज रूप में चारो भुजाएँ फैलाकर शिव प्रदोषतांडव करते है।
भैरवतांडव: जो तामसिक गुणों से लिप्त है, असुर और राक्षस योनियों में आकृष्ट है वे ही भगवान भोलेनाथ की पूजा करते है। शंकर हमेशा भूतों, प्रेतों, कुष्मांडों, पिशाचों और प्रेतनरों से सम्बद्ध रहते है। उन तमसप्रधान जीवों के काम, क्रोध, लालसा, अभिमान, अहंकार आदि दुर्गुणों को नष्ट कर उन्हें भगवान नारायण का प्रिय बनाने हेतु शिव भैरवतांडव करते है। भैरव के यानी दण्डपाणि के रूपमें अर्थात हाथमें दंड और साथही घंटिका, नर-कपाल और अग्नि धारण कर स्मशान निवासी प्राणियों के साथ वे अपने नुकीले नाखून, कोहनियाँ, अंग के और सर के केश, रक्तवर्ण के नेत्रगोलक, पलके ऊर्ध्व दिशा में विस्तारित कर भैरवतांडव करते है।
संहारतांडव: भगवान आदि नारायण द्वारा नियोजित देवता ब्रह्म और शिव उत्पत्ति और संहारि के कार्य में उनकी सहायता करते है। जब संहार का समय आता है तब भगवान अनंतदेव अपने हजारों फणों से अग्नि की ज्वालाएँ निर्माण कर ब्रह्मांड को तपाते है। उस समय शंकर ग्यारह रुद्रों के साथ संहारतांडव करते है। अपना तिसरा नेत्र खोल कर, प्रचंड रूप धारण कर भयानक ध्वनियों के साथ सारे लोकों को पैरों तले कुचल देते है। उस समय देवता भयभीत होकर मूर्छित हो जाते है तथा देवस्त्रियाँओं के गर्भ गिर जाते है। अपनी जटाओं के फटकार से शिव हजारो तारकपुंजों को विदारित करते है तथा अपने विक्राल, हिंस्त्र स्वरूप से काल को भी व्याकुल कर डालते है।
श्रृंगारतांडव: परम पुरुषोत्तम भगवान नारायण के मनमोहक मोहिनी रूप के अनंत लावण्य से तथा कभी देवी पार्वती के शोभायमान सौंदर्य से मोहित होकर शिव श्रृंगारतांडव का आरंभ करते है। रमणीय रूप धारण कर शिव बेल, कणेर, नवमल्लिका, शतपत्र, भूमिचम्पा, मुद्गपर्णी आदि पुष्पों-पत्तों से मंडित होकर नाग, अस्थि, राख, कपाल इत्यादि से बने अलंकारों को पहनकर भुजाओं में चामर, पद्म और रुद्राक्ष धारण कर श्रृंगारतांडव करते हैं
युगलतांडव: शिव के मूर्त स्वरूप को देखकर मुग्ध हो जानेपर श्रीमती लक्ष्मीजाता पार्वती लास्य नृत्य करने लगती है। नृत्य के अंतिम चरण में वह शिव से एक हो जाती है। अतः वे दोनों अर्धनारीश्वर स्वरूप में दिव्य चतुर्भुज स्वरूप से युक्त होकर युगलतांडव करते है। पद्म, नाग और कुण्ड़िका धारण कर, चंदन, सुवर्णचूर्ण, लवङ्गतैल आदि से सुसज्जित होकर, प्रीतिमुद्राओं को प्रगट कर अर्धनारीपुरुष के रूपमें रुद्र और रुद्राणी दोनों युगलनृत्य करते है।